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जय श्री राम
कभी कभी ऐसी आचार्याजनक घटनाये हो जाती जिस को हम सोच नहीं सकते परन्तु किसी खास उद्देश्य के लिए की जाती है.राम नाम की महिमा को उजागर करने के लिए हनुमानजी और भगवान् राम का युद्ध हुआ था.
शरणागत की रक्षा ही धर्म है.,वही माता पिता की आज्ञा का पालन करना भी सर्वश्रेष्ठ धर्म -ये मूल मर्म तत्व स्वयं मर्यादा पुरषोतम श्री राम ने स्वयं ही प्रतिपादित और प्रतिस्थापित किया अत स्वामी और आरध्य का अनुकरण सेवक और भक्त क्यों न करे !ऐसी परिस्थित हनुमानजी के सामने देवर्षि नारद ने अपनी गूढ़ लीला से उपस्थित की !हनुमानजी को स्वयं अपने आरध्य से युद्ध करना अनिवार्य हो गया.!प्रसंग इस प्रकार आता है की प्रभु की आज्ञा ले कर हनुमानजी माता अंजना के दर्शनार्थ चल पड़े थे !इसी बीच काशी नरेश अयोध्या प्रस्थान कर प्रभु के दर्शन करने को निकले थे !मार्ग में देवर्षि नारद से भेट होने पर उन्हें प्रणाम कर अपने अयोध्या जाने का मंतव्य बताया!नारदजी ने आदेश किया कि वहां आप ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम नहीं करियेगा! असम्जस कि स्थित में नारदजी के आदेशानुसार काशी नरेश ने तदुन्सार ही किया!विशामित्र कुपित हो गए -उनके क्रोध का कारण जानकार उनकी इच्छा से श्री राम जी ने भी काशीनरेश को सूर्यास्त के पूर्व ही अपने वाणों से म्रत्युदंड देने की प्रतिज्ञा की.लौटते वक़्त काशीनरेश भयभीत पुनः नारदजी के शरण में पहुचे -नारदजी ने उन्हें शीघ्र ही माता अंजना के पास पहुंचा दिया !और माता के चरण पकड़ कर प्राण रक्षा का वाकां देने का निर्देश दे कर स्वयं अंतर्ध्यान हो गए.!भय्क्रांत नरेश को प्राण रक्षा का वाकां देने के बाद ही माँ अंजना को सम्पूर्ण विवरण ज्ञात हुआ !तभी हनुमानजी माता के पास पहुंचे! माँ ने उनसे शपथ ले कर पहले तो अपनी आज्ञापालन का वचन लिया ,तदोपरांत श्री राम प्रतिज्ञा की बात बताई !एक ओर शरणागत कशी नरेश को दिया प्राणदान का वचन और माता का आदेश -वही दूसरी ओर अर्ध्य की प्रतिज्ञा.!”बुद्धि कुशलम्”हनुमानजी ने मार्ग निकला -पुनः वायु वेग से श्री राम के समक्ष पहुंचे !याचना की और उनसे ये वरदान प्राप्त कर लिया की “राम नाम जप “करने वाले को बड़े से बड़े अस्त्र शस्त्रभी नहीं छु सकेंगे राम नाम की महिमा अमोघ ,अजय हो-यह बचन माग आपने काशी नरेश को सरयू नदी के जल में खड़े हो कर अविरल अविराम श्री राम नाम जप का आदेश दिया ,स्वयं उसकी रक्षा में खड़े हो गए.!स्वयं उनके मुख से तो राम नाम ध्वनि
सर्वदा ही झंकृत होती ही रहती हो ! जब प्रभु के छोड़े दो सर (वार्ण)अमोघ होते हुए भी मात्र हनुमानजी और काशिराज की परिक्रमा करके लौट आये.!साथ में गुरदेव वशिष्ट और विश्वामित्रजी भी विराजमान थे.! गदा लेकर खड़े हनुमानजी का उत्तर था की प्रभुजी आपने ही मुझे राम नाम जप करने वाले की रक्षा का दायित्व दिया है.और उसे अभय प्रदान किया है.अत आप यदि राम नाम की महिमा का प्रभाव प्रताप मिटाना चाहे तो मुझे आगया दे.!वशिष्ठ जजी हनुमानजी के बुधि कौशल ,शरणागत रक्षण और आराध्य के प्रति समर्पण सभी को जान अत्यंत प्रसन्न हुए.!उन्होंने काशिराज से विश्वामित्र की चरण बन्दना कर क्षमा याचना का संकेत दिया !विश्वामित्रजी प्रसन्न और संतुष्ठ थे ,उन्होंने श्री राम को वार्ण वापस लेने का आदेश दिया.!श्री राम ने अपने “नाम” के अमित रक्षक और मर्यादाओ तथा मूल्यों के सम्पर्पित शरणागत रक्षक हनुमानजी को गले से लगा लिया.”राम से बड़ा राम का नाम “की महिमा का अनुभव प्रत्येक श्रदालु का व्यक्तिगत अनुभव रहता भी आया है.
सन्दर्भ : हनुमान अंक कल्याण १९७५.
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