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ओडीशा के दाना माझी की व्यथा का करूँ वर्णन -एक कविता के द्वारा

भारत के अतीत की उप्
भारत के अतीत की उप्
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जय श्री राम (उड़ीसा में दाना मांझी द्वारा अपनी पत्नी के शव को कंधे पर उठा कर 10 किमी तक पैदल चलने पर एक कवि की वेदना)
कौन दोषी है कौन नहीं
भूल के
इस पति, इस प्रेमी को नमन।

संगिनी!/
तो क्या हुआ /
जो चार कंधे ना मिले/
मैं अकेला ही बहुत हूँ/
चल सकूँ लेकर तुझे/
मोक्ष के उस द्वार पर/
धिक्कार है संसार पर/
सात फेरे जब लिए थे/
सात जन्मों के सफर तक/
एक जीवन चलो बीता/
साथ यद्यपि मध्य छूटा/
किन्तु छः है शेष अब भी/
तुम चलो आता हूँ मैं भी/
करके कुछ दायित्व पूरे/
हैं जो कुछ सपने अधूरे/
चल तुझे मैं छोड़ आऊँ/
देह हाथों में उठाकर/
टूट कर न हार कर/
धिक्कार है संसार पर/
तू मेरी है मैं तुझे ले जाऊँगा/
धन नहीं पर हाँथ न फैलाउंगा/

मील बारह क्या जो होता बारह सौ भी/
यूँ ही ले चलता तुझे कंधों पे ढोकर ले जाऊँगा/ कोई आशा है नहीं मुझको किसी से/
लोग देखें हैं तमाशा मैं हूँ जोकर/
दुःख बहुत होता है मुझको/ लोगों के व्यवहार पर/
धिक्कार है संसार पर/

अज्ञात

रमेश अग्रवाल कानपुर -सौजन्य वाट्सएप्प

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